ठाकुरदास अपनी पत्नी और इकलौते बच्चे को छोड़ कर इस संसार से चल बसा। पत्नी के कंधे पर, सारे परिवार का दायित्त्व आ गया। इसी प्रकार दिन कटते रहे ,और वर्ष बीतते गए। एक दिन बेटा रात के समय बैठा , माँ के पैर दबा रहा था , और बातें भी कर रहा था -“माँ बड़ा होकर , मैं पढ़ -लिखकर , विद्वान बनूँगा ,और तुम्हार बहुत सेवा करूँगा। ” ” कैसी सेवा करेगा तू मेरी ?” माँ ने पूछा। ” बड़े कष्ट सहन कर तुम मुझे पढ़ा रही हो माँ , में कमाने लगूंगा न जब , तब तुम्हे अच्छा – अच्छा खाना खिलाऊंगा , और हाँ तुम्हारे लिए गहने भी लाऊंगा। ” ” हाँ बेटा ,तू अवश्य सेवा करेगा मेरी। ‘ माँ बोली ” पर गहने मेरी पसंद के ही बनवाना। ” ” कौन से गहने माँ “? ” बेटा ,सुन मुझे तीन गहनों की चाह है। मैं चाहती हु – गांव में अच्छा विद्यालय हो ,चिकित्सालय हो, और निर्धन – असहाय बालकों को खाने -पिने तथा पहनने की सुविधा हो। ”